बात जब भी करते हो बस मुस्कुराकर
ग़म को छुपा लेते हो बस मुस्कुराकर
खामोश से रहते हो हरदम फिर भी
कितना कुछ कह जाते हो बस मुस्कुराकर
आंसू जब भी आते हैं आँखों में तुम्हारी
कितनी सफाई से पी जाते हो बस मुस्कुराकर
तुम्हारी उदासी का कारण जब भी पूछते हैं लोग
कितनी सहजता से टाल जाते हो बस मुस्कुराकर
घर कर लिया है मेरे दिल में तुमने
अब छोड़ भी जाते हो तो बस मुस्कुराकर...
khamoshnagme
Saturday 25 February 2012
Tuesday 29 November 2011
उनको भी हमसे मोहब्बत हो जरुरी तो नहीं,
एक सी दोनों की हालत हो जरुरी तो नहीं....
बदली बदली सी नज़र आती है दुनिया हमको,
इसमें उनकी भी इनायत हो जरुरी तो नहीं....
जिसको कहते हैं मोहब्बत, है खुदा की नेमत,
सब की किस्मत में ये दौलत हो जरुरी तो नहीं....
चाँद छूने की तमन्ना तो है हमको भी मगर,
दूज की चाँद हकीक़त हो जरुरी तो नहीं...
एक सी दोनों की हालत हो जरुरी तो नहीं....
बदली बदली सी नज़र आती है दुनिया हमको,
इसमें उनकी भी इनायत हो जरुरी तो नहीं....
जिसको कहते हैं मोहब्बत, है खुदा की नेमत,
सब की किस्मत में ये दौलत हो जरुरी तो नहीं....
चाँद छूने की तमन्ना तो है हमको भी मगर,
दूज की चाँद हकीक़त हो जरुरी तो नहीं...
Friday 8 April 2011
माटी की कच्ची गागर का क्या खोना क्या पाना बाबा
माटी को माटी रहना है माटी में मिल जाना बाबा
हम क्या जाने दीवारों से कैसे धूप उतरती होगी
रात रहे बाहर जाना है रात गए घर आना बाबा
जिस लकड़ी को अन्दर अन्दर दीमक बिलकुल चाट चुकी हो
उसको ऊपर से चमकाना राख़ पे धूल जमाना बाबा
छत के ऊपर बादल बरसे छत के नीचे अपनी आँखें
तन की इस गीली मिट्टी को घुल घुल कर बह जाना बाबा
प्यार की गहरी फुंकारो से सारा बदन आकाश हुआ है
दूध पिलाना तन डसवाना है दस्तूर पुराना बाबा
इन ऊंचे शहरों में पैदल सिर्फ देहाती ही चलते हैं
हम को बाजारों से इक दिन कांधों पर ले जाना बाबा
पानी के हम झूठे मोती कैसे पलकों पे रुक जाएँ
नदी को दरिया, दरिया को सागर से मिल जाना बाबा
धूप नए मौसम के कपडे पहन पहन कश्ती पे तैरे
राख़ का कुर्ता धूल की लुंगी अपना भेस पुराना बाबा......
माटी को माटी रहना है माटी में मिल जाना बाबा
हम क्या जाने दीवारों से कैसे धूप उतरती होगी
रात रहे बाहर जाना है रात गए घर आना बाबा
जिस लकड़ी को अन्दर अन्दर दीमक बिलकुल चाट चुकी हो
उसको ऊपर से चमकाना राख़ पे धूल जमाना बाबा
छत के ऊपर बादल बरसे छत के नीचे अपनी आँखें
तन की इस गीली मिट्टी को घुल घुल कर बह जाना बाबा
प्यार की गहरी फुंकारो से सारा बदन आकाश हुआ है
दूध पिलाना तन डसवाना है दस्तूर पुराना बाबा
इन ऊंचे शहरों में पैदल सिर्फ देहाती ही चलते हैं
हम को बाजारों से इक दिन कांधों पर ले जाना बाबा
पानी के हम झूठे मोती कैसे पलकों पे रुक जाएँ
नदी को दरिया, दरिया को सागर से मिल जाना बाबा
धूप नए मौसम के कपडे पहन पहन कश्ती पे तैरे
राख़ का कुर्ता धूल की लुंगी अपना भेस पुराना बाबा......
Tuesday 1 March 2011
आज भी निगाहों को किसी का इंतज़ार क्यों है....
थम चुकी है ज़िन्दगी फिर भी धडकनों में रफ़्तार क्यों है ...
पतझड़ सी वीरानी थी हर लम्हे में हर मौसम में....
फिर आज गुलिस्तां में सावन की बौछार क्यों है...
पथरायी हुई आँखों में शबनम के चंद कतरे...
फिर से छलक पड़ने को बेताब से क्यों है...
तन्हाई में जीने की आदत सी पद चुकी थी...
फिर आज इस ख़ामोशी में आवाज़ सी क्यों है...
न रह खुशियों से तमाम उम्र कोई रिश्ता...
फिर आज इन होठों पे ये मुस्कान सी क्यों है.....
थम चुकी है ज़िन्दगी फिर भी धडकनों में रफ़्तार क्यों है ...
पतझड़ सी वीरानी थी हर लम्हे में हर मौसम में....
फिर आज गुलिस्तां में सावन की बौछार क्यों है...
पथरायी हुई आँखों में शबनम के चंद कतरे...
फिर से छलक पड़ने को बेताब से क्यों है...
तन्हाई में जीने की आदत सी पद चुकी थी...
फिर आज इस ख़ामोशी में आवाज़ सी क्यों है...
न रह खुशियों से तमाम उम्र कोई रिश्ता...
फिर आज इन होठों पे ये मुस्कान सी क्यों है.....
Monday 28 February 2011
Sunday 27 February 2011
सोचा नहीं अच्छा बुरा, देखा सुना कुछ भी नहीं
माँगा खुदा से रात - दिन तेरे सिवा कुछ भी नहीं
सोचा तुझे, देखा तुझे, चाहा तुझे,पूजा तुझे
मेरी ख़ता, मेरी वफ़ा तेरी ख़ता कुछ भी नहीं
जिस पर हमारी आँख ने मोती बिछाए रात भर
भेजा तुझे वही काग़ज उसे हमने लिखा कुछ भी नहीं
एक शाम की दहलीज़ पर बैठे रहे वो देर तक
आँखों से की बातें बहुत मुंह से कहा कुछ भी नहीं
दो चार दिन की बात है दिल ख़ाक में सो जायेगा
जब आग पर काग़ज रखा बाकी बचा कुछ भी नहीं
अहसास की ख़ुश्बू कहाँ आवाज़ के जुगनू कहाँ
खामोश यादों के सिवा घर में रहा कुछ भी नहीं.....
माँगा खुदा से रात - दिन तेरे सिवा कुछ भी नहीं
सोचा तुझे, देखा तुझे, चाहा तुझे,पूजा तुझे
मेरी ख़ता, मेरी वफ़ा तेरी ख़ता कुछ भी नहीं
जिस पर हमारी आँख ने मोती बिछाए रात भर
भेजा तुझे वही काग़ज उसे हमने लिखा कुछ भी नहीं
एक शाम की दहलीज़ पर बैठे रहे वो देर तक
आँखों से की बातें बहुत मुंह से कहा कुछ भी नहीं
दो चार दिन की बात है दिल ख़ाक में सो जायेगा
जब आग पर काग़ज रखा बाकी बचा कुछ भी नहीं
अहसास की ख़ुश्बू कहाँ आवाज़ के जुगनू कहाँ
खामोश यादों के सिवा घर में रहा कुछ भी नहीं.....
Saturday 26 February 2011
अपनों से ही घात हुई हो यह भी तो हो सकता है
या दिन में ही रात हुई हो यह भी तो हो सकता है
बीत गया मौसम बारिश का मगर न छाई हरियाली
या अश्कों की बरसात हुई हो ये भी तो हो सकता है
एक दुसरे के सम्मुख थे मगर गुफ़्तगू नहीं हुई
या दिल से दिल की बात हुई हो ये भी तो हो सकता है
रोते रोते लगता है आँखों का पानी सूख गया
या रोने की शुरुआत हुई हो ये भी तो हो सकता है
जाने क्यों हँसते हँसते आंसू आँखों से छलक पड़े
या ख़ुशी की ग़मों से मात हुई हो ये भी तो हो सकता है...
या दिन में ही रात हुई हो यह भी तो हो सकता है
बीत गया मौसम बारिश का मगर न छाई हरियाली
या अश्कों की बरसात हुई हो ये भी तो हो सकता है
एक दुसरे के सम्मुख थे मगर गुफ़्तगू नहीं हुई
या दिल से दिल की बात हुई हो ये भी तो हो सकता है
रोते रोते लगता है आँखों का पानी सूख गया
या रोने की शुरुआत हुई हो ये भी तो हो सकता है
जाने क्यों हँसते हँसते आंसू आँखों से छलक पड़े
या ख़ुशी की ग़मों से मात हुई हो ये भी तो हो सकता है...
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